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Chor story : एक चोर को श्रद्धांजलि

Chor story : एक चोर को श्रद्धांजलि

आज हम आपको चोर की कहानी ( chor story ) सुना रहे है।

आम तौर पर जब कोई भी महान,चोर और श्रद्धांजलि तीनों शब्दों का एक साथ प्रयोग करता है तो एक सामान्य बुद्धि वाला मनुष्य सोचता है कि कोई नेता की ही बात कर रहा है

क्योंकि गलत कामों को महानता देना,उन्हें करने वाले को गौरव अथवा गर्व बनाने का अप्रतिम कार्य हमारी राजनीति की अप्रतिम उपलब्धि है।

कोई कोई इसे नेता इसलिए भी समझ लेता है क्योंकि चोर जब एक कदम ऊपर उठने की सोचता है तो वह निश्चित ही नेता बनने की सोचेगा क्योंकि चोरी,डकैती का ‘एडवांस’ या ‘प्रो’ लेवल होता है-नेतागिरी।

पर मैं जिस चोर को श्रद्धांजलि दे रहा हूँ वह शुद्ध चोर है।

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ऐसा नहीं है कि उसे नेता बनने का ऑफर नहीं आया परन्तु उसने साफ कह दिया था मुझे चोर बनके ही चोरी करनी है।

ये नेता या कर्मचारी जैसे नकाब पहनकर चोरी करना मेरे संस्कारों के खिलाफ है।तो ऐसे संस्कारी चोर की महानता के बारे में आपको बताऊंगा।

वैसे तो इनका मानना था कि आदमी काम से जाना जाता है,नाम से नहीं और ये बात उन्होंने संजय दत्त की पुलिसगिरी फ़िल्म से कई साल पहले कह दी थी।

पर हिंदी में साहित्य लिखने के नियम अनुसार पात्र का नाम बता देने से दर्शक पात्र से भावनात्मक रूप से ज्यादा गहराई से जुड़ पाता है तो इसी कारण उनका नाम बताना पड़ रहा है।सो इनका नाम था-डाकू कुल्हड़ काका।

इनके नामकरण के पीछे कि कहानी कुछ ऐसी हैकि इनके पिताजी हर समय साथ में कुल्हाड़ी रखते थे।

कुल्हाड़ी को बेटी कहा करते थे तो जब कुल्हड़ काका का जन्म हुआ तो इनको भी साथ लेकर कभी घुमते तो कहते कि मेरे बेटी कुल्हाड़ी और बेटा कुल्हड़ दोनों साथ है,अब किसका डर है।इस तरह कुल्हड़ नाम रख दिया।


यहां डर शब्द से समझ गए होंगे कि कुल्हड़ काका के पिताजी का काम भी साहसिक या ‘एडवेंचर’ जैसा होगा।

दरअसल,कुल्हड़ काका खानदानी चोर थे।इनके पिताजी भी चोर,दादाजी डाकू थे,परदादा लुटेरे थे।

सरकार,पुलिस,लोगों की जागरूकता के कारण से आपको पता लग गया होगा कि पीढ़ी दर पीढ़ी साहसिक कार्यों का ग्राफ नीचे जा रहा है मसलन परदादा लुटेरे,दादा डाकू,पिताजी चोर तक कि श्रेणी में आ गए।

जब यह चिंता पारिवारिक बैठक में जाहिर हुई तो कुल्हड़ काका ने भीष्म की तरह प्रतिज्ञा ले ली कि मैं शादी नहीं करूंगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हमारा कोई वंशज इस काम को छोड़कर दूसरा काम करे।

वो 15 साल का कुल्हड़ था और परसों के 89 वर्षीय कुल्हड़ काका,वादा किया और पूरा निभाया।

यही बातें उन्हें महानता का दर्जा दिलवाती है।

वे सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते है जैसे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ उनका भी मूलमंत्र था।

धरती का हर परिवार उन्हें अपना परिवार लगता था इसलिए जब मन किया किसी के भी घर में चले जाते थे(चोरी छिपे),

पैसे जो मिलते ले आते..क्योंकि “अयं निज परो वेति गणना लघुचेतसाम” ये तेरा वो मेरा छोटे दिलों वाले लोगों की सोच है।

कुल्हड़ काका के लिए सब उनका ही था।और तो और,जितना चाहिए उससे एक भी अंश ज्यादा चोरी न करके जैन धर्म का ‘अपरिग्रह’ सिद्धांत का पालन करते।

राह चलते आदमी को मोक्ष या निर्वाण देकर पक्के बौद्ध मार्गी होने का दम्भ भरते थे।

वहीं अपना एक हिस्सा अपने विकलांग काका बेटे भाई को देकर इस्लाम वाली ‘ज़कात’ मना लेते थे।यह है भारत के असली ‘सेक्युलर’।


कुल्हड़ काका की महानता का एक किस्सा यह भी है कि सभी तरह के दर्शन को मानते है।

परिस्थिति पर निर्भर करता था कि यह पूंजीवादी बने या कम्युनिस्ट..आज समाजवादी बने है कि व्यक्तिवादी।

मसलन,जब गरीब के घर चोरी करते,शोषण करते तो पूंजीवादी,अमीर को कंगाल करते समय पक्के कम्युनिस्ट..जान माल के नुकसान आने पर नक्सली बनने का परहेज भी नहीं करते थे।


जीव दया इतनी कि उन्हें पता था कि यहां धरती पर जिंदा रहे तो सिवाय दुख के कुछ होना जाना नहीं है इसलिए उनको खाकर स्वतृप्ति और उस जीव के दुखों को हमेशा के लिए हर लेते थे।

उनकी महानता का अद्भुत किस्सा तो यह है कि एक बार मंदिर निर्माण हुआ तो कुछ पैसों की कमी पड़ गयी..यह बात कुछेक साल पहले की ही है।

तो कुल्हड़ काका ने इसकी जिम्मेदारी ली।

उसी रात को उसी मंदिर के पुजारी के घर डाका डाला,जितना चाहिए उतना लिया(अपरिग्रह) और अगले ही दिन जमा करा दिया।

इस तरह गांव वालों की मंदिर बनाने की इच्छा पूरी की।

 

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